अपनी बीमारी की छुट्टियों के दौरान, चैत्र के लगभग बीचोबीच जवान होती शाम को मौसम अचानक खुशनुमा हो गया. आसमान पर बादलों की हलकी पर्त चढ़ आयी और हवा चलने लगी. ऐसे में खिड़की से झांकते, झूमते नीम, गुडहल और पतझड़ को सह रहे सागौन को देखते हुए अपने शिथिल हो चले मन का में आनंद ले रही हूँ. बीमारी में शरीर के पस्त होते ही दिमाग के तंतु भी शिथिल हो जाते है, और हम सारे बंधनों से आजाद हो जाते है....ऐसा सिर्फ़ बीमारी में ही होता है कि रात और दिन आते और जाते है....घड़ी की सुई भी घुमती है फिर भी हम इससे आजाद होते है.... सुई और पृथ्वी दोनों को घुमने देते है, क्योंकि हम फिलहाल इनकी तरह घुमने के लिए अभिशप्त नहीं है. 'तुम नहीं गम नहीं शराब नहीं, ऐसी तन्हाई का जवाब नहीं, बार बारहे इसे पड़ा किजे दिल से बेहतर कोई किताब नहीं'.... यूँ ऐसा कम ही होता है...तो इस हाल में दिमाग का सारा कूड़ा साफ़ हो चुका है और जमीं तैयार पड़ी है बस देर है तो कुछ बोने की....... तो फिलहाल जब बुखार उतरता है से लेकर उसके फिर से आने तक हाथ में बेनजीर भुट्टो की आत्मकथा 'डाटर ऑफ़ ईस्ट' पढ़ रही हूँ. आख़िर शाम के अन्तिम सिरे पर आसमान से बूंदे बरसी और खिड़की से हवा पर सवार होकर सौंधी सी खुशबु कमरे में आ धमकी....हवा का चलना बदस्तूर जारी है. बल्कि उसकी गति तेज और तेजतर हो रही है.... इससे पोर्च में लगा विंड चिम तेजी से झनझना रहा है.
उधर बेनजीर अपनी सात साल की अमानवीय....त्रासद..... एकाकी....हताशाभरी और लगभग तोड़ देने वाली जेल की सजा से आजाद होकर अपना इलाज कराने के लिए लन्दन पहुँच गई..... अब तक पढ़े २३५ पन्नों के बाद एक सवाल जो मेरे सामने खड़ा है कि----- वो क्या वजह हैं, जिसने अपने पिता की हत्या, मां और ख़ुद की यंत्रणा दायक सजा के लंबे अरसे के बाद भी बेनजीर को पाकिस्तान के फौजी शासक जनरल जिया से समझौता ना करने के लिए प्रेरित करता रहा? अपनी सात सालों की सजा में ज्यादातर अकेले जेल में और वह भी सी ग्रेड कैदी की तरह बिताने के बाद भी बेनजीर ख़ुद को राजनीतिक गतिविधियों से दूर रखने का समझौता नहीं करती हैं. क्या वह मात्र सत्ता पाने की लालसा है? या फिर एक जूनून है.....एक लक्ष्य पाने का....पाकिस्तान में लोकतंत्र लाने का...? फिलहाल लगातार पढ़ रहीं हूँ और विचार कर रही हूँ.....कहा जा सकता है कि लक्ष्य पाने की प्यास जूनून पैदा करती है और जूनून वह ताकत पैदा करता है, जिसे जीवट कहते है....और यह सकारात्मक भी होता है और नकारात्मक भी....पाठक मुझे माफ़ करेगें लेकिन आतंकवादी भी इसी जूनून की पैदावार है, बस इनकी दिशा विपरीत है....हालाँकि ये 'बस' नहीं है....इस पर फिर कभी......
जूनून ही है..एक नशा!!
ReplyDeletesatta ki khvahish ek nasha hai ,benazir isi se sanchalit thi.
ReplyDeleteबिल्कुल सहमत हूं आपसे...नशा ही है जुनून।
ReplyDeleteविचारशील होने का अहसास ... जायज है. आपके अस्तित्व की उपस्थिति प्रेरणादायक है !
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