लगभग २० दिनों से चल रही किताब 'डॉटर ऑफ़ ईस्ट' आखिर ख़त्म हुई. इस पुरे समय के दौरान जब मैं नहीं पढ़ रही होती थी तब भी बेनजीर मेरे साथ लगी रहती थी.....गहरी नींद में सपनों की तरह....अधूरी नींद में विचारों की तरह और जागते हुए चित्रों की तरह....यहाँ तक की पढ़ते हुए भी विचार और फ़िल्म चलती रहती थी....कहा जा सकता है कि बेनजीर के संघर्ष को पढ़ने के दौरान मैंने भी जिया है....दरअसल बेनजीर की आत्मकथा के बहाने ना सिर्फ़ उसके संघर्ष बल्कि पाकिस्तानी अवाम का लोकतंत्र के लिए संघर्ष की भी जानकारी मिलती है...ये महज इत्तेफाक ही है कि इन दिनों भी पाकिस्तान गहरे सियासी संकट से जूझ रहा है....और ये संकट भी उस देश की बदनसीब जनता को फिर वहीं ले जा रहा है, जहाँ से वह बड़ी मुश्किल से निकला है.....
लगभग महीने भर पहले जब अमेरिका ने 'गुड और बेड' तालिबानी का शोशा छोड़ा था तब यूँही विचार आया था कि कहीं ऐसा तो नही कि पाकिस्तान की सियासत का रिमोट क्षेत्र में अमेरिकी हितों से संचालित होता है....?
बस ये विचार यूँ ही आया था...लेकिन अपनी आत्मकथा में बेनजीर लगातार इसकी तस्दीक करती रहीं....शोध की भाषा में कह लें कि फिलहाल ये विचार एक 'हाइपोथीसिस' बन गया है। नहीं तो क्या कारण है कि ६२ साल की आजादी के बाद भी पाकिस्तान में कुल ४ ही निर्वाचित प्रधानमंत्री हुए...शेष समय फौजी तानाशाही रही...आखिर इस क्षेत्र में अमेरिकी रूचि क्या मात्र रूसी प्रभाव को रोकना ही है.... या पाकिस्तान में रहते हुए भारत और चीन पर लगाम लगाने की रणनीति भी है....?बड़ी अजीब बात है की अमेरिका ने जिया और मुशर्रफ़ दोनों को ही खूब शह दी....इस पुरे समय में कभी भी लोकतंत्र और मानवाधिकारों पर अमेरिका ने चिंता नहीं जताई...चाहे औपचारिक तौर पर शीत युद्ध समाप्त हो चुका है....फिर भी हाल के दिनों में रूसी पुनरुत्थान ने यूरेशिया सहित अमेरिका को चुनौती देना शुरू कर दिया है....बल्कि पश्चिम के विशेषज्ञों ने तो लगभग साल भर पहले से आशंका व्यक्त करनी शुरू कर दी थी कि दुनिया में दुसरे शीत युद्ध की आहट सुनाई देने लगी है.....शायद बीते साल के मध्य में दुनिया में मंदी के भुत ने इस आशंका को वक्ती तौर पर ढँक दिया है...नहीं तो जार्जिया संकट....मध्य एशिया में नाटो की घुसपैठ और पूर्वी यौरोपे में अमेरिका के डिफेन्स सिस्टम लगाने का रूसी विरोध और रूसी चुनावों के प्रति पश्चिमी नजरिया और उस पर रूसी प्रतिक्रिया किसी से छुपी नहीं है....यहाँ अमेरिकी मंदी के तथ्य को उसके रक्षा उद्योग के प्रकाश में भुलाया नहीं जा सकता है....हो सकता है कि पाकिस्तान और अफगानिस्तान में अमेरिकी हथियारों की खपत कर वह अपनी अर्थव्यवस्था को बूस्ट करने का षडयन्त्र कर रहा हो?
आपकी बातें हमें वैसे तो ठीक ही लग रही हैं लेकिन पकिस्तान में तालिबानियों के बारे में आप खामोश क्यों हैं?
ReplyDeleteapke vichar adbhut hai'badhai......
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