Sunday 13 September 2009

खबरों की चिता पर रोटी सेंकते समाचार माध्यम



सूचना क्रांति के इस दौर में समाचार माध्यम संकट से गुजर रहे हैं। इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट दोनों के सामने ही अस्तित्व बचाने का संकट खड़ा हुआ है। यह संकट पाठक या दर्शक को उतना नहीं दिखता जितना इस उद्योग के कर्ताओं के समक्ष खुलता है। इलेक्ट्रॉनिक माध्यम में यह टीआरपी की शक्ल में और प्रिंट में सर्क्यूलेशन की शक्ल में विद्यमान है। और इस संकट ने इसकी गुणात्मकता को बढ़ाने की बजाय कम कर दिया है। आर्थिक उदारवाद का सिद्धांत तो यह कहता है कि प्रतिस्पर्धा से गुणवत्ता बढ़ती है, लेकिन समाचार माध्यमों में इसका ठीक उलटा हो रहा है और उस पर तुर्रा ये कि कहा ये जा रहा है कि पाठक और दर्शक आजकल यही पसंद करते हैं।
इलेक्ट्रॉनिक में 24 घंटे नई खबरें देने का और प्रिंट में ताजी खबरें देने के संकट के बीच प्रिंट में दोहरी मुश्किल है, एक अपनों के ही बीच में प्रतिद्वंद्विता और दूसरा इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से प्रतिस्पर्धा... दोनों ही स्तर पर खुद को स्थापित करना और फिर बनाए रखना एक दुश्कर टास्क बनता जा रहा है। पाठक फिलहाल तो बस न्यूज और व्यूवज का फर्क ही समझता है और यदि आम पाठक की बात करें तो वह तो बेचारा अखबारों की मैनुपिलेटेड दुनिया को ही सच समझता है। इन दिनों चूँकि अखबार ताजा खबरें दे पाने की चुनौतियों से लड़ रहे हैं, ऐसे में न्यूज और व्यूवज के बीच एक और चीज पनपी है जिसे स्टोरी कहते हैं..... अब पाठकों की समझ में यह नहीं आता कि ये स्टोरी क्या बला है, लेकिन हाँ पत्रकार जानता है कि ये स्टोरी क्या कमाल की चीज है। ये स्टोरी एक पत्रकार को फर्श से उठाकर अर्श तक पहुँचा देती है। ये खबर के एंगेल को बदलती है और फिर इसमें उससे जुड़े विशेषज्ञों से कुछ सनसनीखेज जानकारी ली जाती है और तैयार हो जाती है स्टोरी...। न इसके कुछ आगे सोचने की जरूरत है और न ही पीछे.... दरअसल दिनों-दिन समाचार माध्यमों की दुनिया भयावह होती जा रही है, इसमें कोई सोच, कोई जिम्मेदारी, कोई दूरदृष्टि नजर नहीं आती.... गलाकाट स्पर्धा के दौर में यदि नजर आती हो तो मात्र किसी भी तरह से आगे निकलने की हड़बड़ी..... व्यक्तिगत भी और संस्थागत भी.....और इसके लिए आसान और शॉर्टकट है सनसनी फैलाना...... स्वाइन फ्लू के ही मामले को ले लिजिए...., जितने लोग इस बीमारी से अब तक मरे उससे ज्यादा लोग एक दिन में सड़क दुर्घटना में मर जाते हैं....फिर अभी अखबारों और टीवी चैनलों के लिए यह एक ऐसा मुद्दा था, जिसे कई दिनों तक भुनाया गया। फिर अखबारों के लिए इतना ही काफी नहीं था इसमें बर्ड फ्लू और भी न जाने कौन-कौन से फ्लू का तड़का लगाया और तैयार हो गई एक सनसनाती अखबारी रैसिपी....इसके लिए पत्रकार को ज्यादा कुछ नहीं करना पड़ता.... किसी डॉक्टर से इस सिलसिले का एक बयान दो और छाप दो... अखबार में इसके लिए उसे क्रेडिट भी मिलेगा... ना तो वह पत्रकार यह सोचेगा कि इसका इम्पैक्ट क्या होगा और न ही इसके इम्पैक्ट पर चयन प्रक्रिया में विचार किया जाएगा। इसका परिणाम... बीमारी से दहशत.....क्योंकि आज भी दूरदराज का पाठक इस दुनिया से दूर है और वह इसकी सच्चाई पर विश्वास करेगा। स्वाइन फ्लू से पहले मुम्बई हमलों के दौरान भी टीवी चैनलों ने जिस तरह का कवरेज दिखाया था, उसने हमारे इलक्ट्रॉनिक मीडिया की जिम्मेदारी और भूमिका पर सवाल उठाए थे...। सवाल यह है कि इस माध्यम में आए अधकचरी समझ और गैर-गंभीर लोग इसे कितना समृद्ध कर पाएँगें। फिर इस क्षेत्र में आने वाले नौजवानों से बात करें तो समझ में आएगा कि क्यों जर्नलिज्म का स्तर लगातार नीचे गिरता जा रहा है। सारे नए लोग इस क्षेत्र में इसलिए आना चाहते हैं, क्योंकि यहाँ पॉवर है....कॉटेक्टस हैं... ग्लैमर है.... बस.... न इससे ज्यादा की उनको जरूरत है और ही कुछ इससे ज्यादा सोचना है। तो अब इस सबमें खबरें कहाँ है? यहाँ खबरों की चिता है और उसपर सिंकती मीडिया की रोटियाँ है। खबरों से तथ्यपरकता तो न जाने कहाँ चली गई और इसमें आ गया एंगेल..... अभी तक ये बीमारी सिर्फ इतिहास लेखन तक ही सीमित थी अब इसने समाचार माध्यम को भी अपनी गिरफ्त में ले लिया है। कभी-कभी तो समझ में नहीं आता कि इस माध्यम में काम करने वाले नए लोग ऑब्जेक्टिवीटी और सब्जेक्टिवीटी में फर्क भी समझते हैं या नहीं?

3 comments:

  1. आपका लेख बहुत ही सुन्दर है,,,,,, हिन्दी दिवस की हार्दिक बधाई।

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  2. patrakaron se vafa ki ummide kis jamane ke aadmi ho tum.

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