Sunday 2 May 2010

भूख जगाता बाजार


गर्मियों के सुलगते दिन और बुझती रातों को जीना एक अहसास है... ठंडी सफेद चादरों पर जागे देर तक, तारों को देखते रहे छत पर पड़े हुए... की तरह का....तो देर तक जागती रातों वाली ऐसी ही राख हुई छुट्टी की सुबह थी। नींद गाढ़ी थी और उसका खुमार और भी गाढ़ा.... बाहर से लगातार आ रही ठक-ठक से पड़ा नींद में खलल.... उफ्, छुट्टी की सुबह भी चैन नहीं.... शिकायतें हमारा स्थायी-भाव है (सिर्फ मेरा ही नहीं, हम सबका)। बाहर जाकर देखा तो पास में बन रहे मकान के चौकीदार का 13 साल का बेटा था जितेंद्र.... हमारे हुलिए और मुद्रा को देखकर उसने चमकते दाँतों को थोड़ा झलकाकर खिसियाई-सी हँसी बिखेरी.... भईया है?
चिढ़कर पूछा - क्यों?
गाड़ी धोनी थी ना!
उसकी बात हमारी समझ में नहीं आई...।
क्या करना है, इतनी सुबह?
भईया ने कहा था कि गाड़ी धोनी है, इसलिए....- उसने बात अधूरी छोड़ दी।
अरे अभी तो सिर्फ सात ही बजी है, नौ बजे तक आना... – नींद पूरी तरह से हवा हो गई थी, इसलिए लहजे में भी थोड़ी नर्मी आ गई.... धीरे से पीछे बेटा लगा दिया।
बाद में लगभग हर दिन वह सुबह आ धमकता.... कोई काम है?
अरे इतना छोटा बच्चा और वह भी लड़का क्या काम करेगा? कभी गार्डन साफ करवाया, फिर हर दिन पौधों को पानी पिलाने की जिम्मेदारी भी उसे दे दी। अब धीरे-धीरे वह शाम को कुछ काम है? कहता हुआ आ टपकता.... एक दिन रहा नहीं गया, पूछना ही पड़ा.... इतना सारा काम करने की क्यों सूझ रही है। उसका जवाब था.... जूते खऱीदने हैं।
मामला यूँ था कि उसे हर काम के पैसे मिलते थे... दो गाड़ी धोई तो 10 रु. पौधों को पानी पिलाया और गार्डन साफ किया तो हर काम के 10 रु. तो बस वह काम की तलाश में आ धमकता.... वह छुटिट्यों में काम करके पैसा जमा कर 11 सौ रु. के जूते खरीदना चाहता है। हमने उसे समझाया – बेटा, इन 10-10 रुपयों को इकट्ठा कर तुम खऱीद चुके जूते.... भूल जा... उन जूतों को....। तीन चार दिन बाद पता चला कि उसके पिता ने दोनों भाईयों को शहर की किसी दुकान पर काम में लगा दिया है।
अब आप इस पर तो जरा भी मत विचारो कि सरकार के मरे बाल श्रम निषेध कानून का क्या होगा? मामला यह नहीं है। उस 10 बाय 10 की कोठरी में मकान में मजदूरी करते पाँच बच्चों के साथ रहते माता-पिता के बच्चे को 11 सौ रु. के जूते लेने की इच्छा कहाँ से जागी? यहाँ आकर गाँधीजी असफल हो जाते हैं, जरूरतें सीमित करो... अरे मामला जरूरतों से आगे का है, इच्छा और फिर वह सीधे जा मिलता है, भूख से.... हवस से....। भूख पहले भी थी, लेकिन इतनी विकराल नहीं थी, जितनी विकराल भूख होगी, उतनी ही विशाल उसकी तृप्ति भी होगी। तो यूँ तो जितेंद्र को जरूरत नहीं थी इतने महँगे जूतों की, लेकिन उसकी भूख तो थी। उसने किसी विज्ञापन में धोनी को वे जूते पहने देख लिया था, फिर.... ? कहाँ से लाए संतोष..... यह जो बाजार है, जिसने अब तक सिर्फ भूख ही पैदा की है, तृप्ति नहीं....तो फिर संतोष आएगा कहाँ से?
औद्योगिक क्रांति के बाद के विकास का इतिहास पूरी तरह से बाजारों की खोज का इतिहास रहा है, इसी खोज ने उपनिवेश बनाए और ग्लोबलाइजेशन के लिए जमीन तैयार की.... सोवियत संघ का पतन तो महज तात्कालिक कारण रहा। मूल कारण तो भूख ही है... लगातार पाने की... सफलता, शोहरत, दौलत, चमक-दमक.... हर कहीं पसरी, लगातार फैलती भूख...विकास की आड़ में फैलती-पनपती भूख... विकास को जस्टिफाई करती.... उसे डिफाइन करती भूख.... बाजार सिर्फ भूख ही पैदा कर सकता है.... उसे तृप्त करना बाजार के बस का रोग नहीं है। बाजार द्वारा पैदा की गई हवस और उसकी तृप्ति के गुमनाम रास्तों से आया मवाद सारे समाज में फैल गया है। हम कितना ही कहें जातीय, ऐतिहासिक या धार्मिक मामले हैं,... लेकिन इन सबके मूल में कहीं एक ही चीज है, भूख.... बेहिसाब भूख.... कहीं पेट भरने की.... तो कहीं पाने और भोगने की...।
भूख का विस्तार जरूरतों के पहाड़ों को तो कब का लाँघ चुका है.... वह सबकुछ को डुबो देने को आतुर है..... और देखिए.... कि बाजार ने सपनों के चमकीले साँप हर घर में छोड़ दिए हैं.... उससे कोई बचाव, कोई सुरक्षा न तो सरकारों के बस में है और न ही कथित संस्कृति के बस में..... हम बस इस ‘भूख’ के प्रवाह में डूब रहे हैं..... बचाव कुछ नहीं.... है, डूबना ही नियति है.... बस

2 comments:

  1. मर्मिक रचना।
    विकट समस्‍याओं का आसान हल ढूँढ निकालना सबसे मुश्किल काम है।

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  2. बाजार ने सपनों के चमकीले साँप हर घर में छोड़ दिए हैं.... उससे कोई बचाव, कोई सुरक्षा न तो सरकारों के बस में है और न ही कथित संस्कृति के बस में..... हम बस इस ‘भूख’ के प्रवाह में डूब रहे हैं..... बचाव कुछ नहीं.... है, डूबना ही नियति है.... टू गुड....

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