Friday 4 June 2010

इत्तफ़ाकन जो हँस लिया हमने, इंतकामन उदास रहते हैं


ऐसा शायद होता ही होगा.... तभी तो उत्सव से जुड़ता है अवसाद। क्या होता होगा इसका मनोविज्ञान.....? क्यों होता है, ऐसा कि जमकर उत्सव मनाने के बाद समापन के साथ ही गाढ़ी-सी उदासी........ न जाने कहाँ से चुपके से आ जाती है.... करने लगती है चीरफाड़, उस सबकी, जिसे आपने जिया...... भोगा.......और किया....... पूछने लगती है सवाल कि क्यों किया ऐसा.......इस जीने से क्या मिल गया?
क्या खुद को सामूहिकता में बहा देने...... बिखेरने और फैला देने का प्रतिशोध होता है ये अवसाद..... क्योंकि उत्सव की कल्पना ही सामूहिकता से शुरू होती है। तो क्या अपने स्व को बहा देने के दुख से पैदा होता होगा अवसाद......। कहीं लगता है, कि ये सामूहिकता और व्यक्तिगतता के बीच का द्वंद्व या फिर..... भौतिकता और आध्यात्मिकता के बीच का तनाव तो नहीं है? क्योंकि अक्सर गहरी एकांतिकता में अनायास आ पहुँचे आनंद के क्षणों को जी लेने के बाद तो ऐसी कोई अवसादिक अनुभूति नहीं होती.....उसके बाद तो एक दिव्यता का एहसास होता है, तो फिर सामूहिकता के आनंद को जी लेने के बाद ऐसा क्यों होता है?
तो क्या यहाँ भी मामला भौतिक और आध्यात्मिक है.....? भौतिकता को जी लेने, भोग लेने के बाद रिक्तता का अहसास अवश्यंभावी है...... और आध्यात्मिकता के बाद खुद के थोड़ा और आगे बढ़ने....... कुछ और भरे होने..... कुछ ज्यादा भारी हो जाने का सुख.....? क्या भौतिकता रिक्त करती है और आध्यात्मिकता भरती है? तो फिर भौतिकता के प्रति इतना गहरा आग्रह क्यों होता है? तो इसका मतलब ये है कि हम सीधे-सीधे खुद से ही भाग रहे हैं...... अवसाद सिर्फ उन्हीं के लिए है जो स्व के प्रति आग्रही है..... वरना तो मजा ही सब कर्मों के मूल में है। फिर हमें ये वैसा क्यों नहीं रखता है..... हम क्यों उत्सव के बाद अवसादग्रस्त हो जाते हैं....? क्या ये ऐसा है ? – इत्तफ़ाकन जो हँस लिया हमने, इंतकामन उदास रहते हैं…..
कहीं गड़बड़ केमिस्ट्री में ही तो नहीं....?

5 comments:

  1. achchhe bhav ke sath likhi gayi rachna

    http://sanjaykuamr.blogspot.com/

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  2. आईये जानें .... मैं कौन हूं!

    आचार्य जी

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  3. जानती हैं , ये उदासी आती है उत्सव के बाद अब और क्या ? क्या पाना है ...? जैसे जीवन निरर्थक है ... क्योंकि मंजिल कोई फिक्स्ड तो है नहीं । भ्रम में हम खुद को ही समझ नहीं पाए होते , जबकि जीवन मनुष्य के अंतर्मन का बाहरी जगत से एक अंतहीन समझौता है , इसलिए स्वीकार भाव बहुत जरुरी है । शुभकामनाओं के साथ

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  4. कहीं गड़बड़ केमिस्ट्री में ही तो नहीं....? सही पकड़ा....लेकिन लाइलाज़ मर्ज़...

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