Wednesday 30 March 2011

उगा है गाँठों का झुरमुट


कभी-कभी ऐसे ही बेवजह कुछ उलझ जाता है कि कोई सिऱा पकडाई में ही नहीं आता। सब कुछ सहज होता है, लेकिन कोई गाँठ ऐसे उभर आती है, जैसे वो वहीं थी, कई-कई बरस से, और हमारी नजर ही नहीं पड़ी उस पर और इस बार उस नाराज बच्चे की तरह ऐंठी हुई है, जिसे डाँट दिया हो और उसकी नाराजगी को भूल कर सब लोग काम पर लग गए हो। बहुत देर इंतजार करने के बाद वो कुछ ऐसा करे, जिससे सबका ध्यान उसकी ओर जाए। लेकिन जब ध्यान चला जाए और उसे मनाने के प्रयास किए जाए, तो उसकी अकड़ कम होने की बजाए कुछ और बढ़ जाए। पुरानी गाँठे, पुराने ज़ख्मों की तरह अड़ियल हो जाती है, खुलने में ही नहीं आती है। जितनी कोशिश करो, उतनी ही कड़ी होती चली जाती है।
कुछ ताजा, कुछ भूला-भटका, कुछ कहीं अटका और कुछ जहन में कहीं उलझा... सब मिलकर धमाचौकड़ी कर रहे हैं और हमारे पास सिवा उसे निस्संग होकर देखने के कोई और उपाय ही नहीं हो। एक अच्छे-से दिन के आखिरी सिरे पर उभर आया वो गूमड़... बिना किसी तर्क, बिना किसी कारण के। उभरी हुई गाँठ नजर आ रही है, गीले-उलझे धागों का गुँझलक भी, बस नहीं नजर आ रहा है तो कोई सिरा...। यूँ बेसबब कोई इस तरह से बेचैन होता है क्या? अक्सर अपनी बेचैनी पर इसी तरह के सवाल से रूबरू होते हैं, हो सकता है इस बेचैनी का कोई सिरा कहीं गहरे अतल में अटका हुआ हो, हो सकता है कि इसका कोई सिरा ही न हो, यूँ इस तरह के कयासों का कोई फायदा है क्या?
ये पहली बार नहीं है और शायद आखिरी बार भी नहीं... कभी-कभी इसकी जड़ें कहीं दूर अतीत में जाकर मिलती है तो कभी आज ही में कहीं अटकी हुई और कभी-कभी तो भविष्य का अज्ञात तक आकर इसमें जुड़ जाता है, कितनी ही कोशिश कर लें कि आज को ही देखें... अभी को, इसी पल को, लेकिन हमारी कोशिशों, चाहने और सोचने से परे चलता है ‘अंतर’ का संसार...। यहाँ कोई तर्क, कोई विचार, प्रयास, बहलाना, फुसलाना या फिर बहकाना कुछ भी नहीं चलता है। यहाँ के नियम तो अज्ञात है, लेकिन उल्लंघन पर सजा मिलती है कड़ी। हम ये नहीं कह सकते हैं कि – ‘यहाँ नो इंट्री का साइनबोर्ड नहीं है, ये हमारी गलती नहीं है।’ बस गलती की सजा मिलेगी ही मिलेगी, चाहे हम ये न जाने की गलती क्या है? तो अब सचमुच नहीं पता कि आखिर किस नियम का उल्लंघन हमने किया है, लेकिन सजा भोग रहे हैं। और ये भी नहीं जानते हैं कि सजा की अवधि क्या होगी...

1 comment:

  1. बेख़बरी बेसबब नहीं ग़ालिब
    कुछ तो है जिसकी पर्देदारी है

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