Sunday, 26 April 2009

जैदी को सलाह

हमारे देश में मौलिकता का अकाल है....संविधान देखें तो उधार का थैला है....राजनीतिक व्यवस्था....अर्थव्यवस्था...शिक्षा से लेकर सिनेमा.....साहित्य....संगीत यहाँ तक कि प्रेम और घृणा की अभिव्यक्ति जैसे नितांत निजी मामले तक हमारे अपने नहीं है....ये हमारी पुरानी आदत है....खासतौर पर वैचारिक और रचनात्मक दुनिया में तो....हम इसे भेड़चाल कहते हैं। यह बीमारी अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग नामों से प्रचलित है। जैसे साहित्य में प्रभाव.....और सिनेमा, संगीत में प्रेरणा....हाँ मामला जूते फेंकने से जुड़ा हुआ है। ये हमारे वैचारिक, रचनात्मक और क्रियात्मक दिवालिएपन की पराकाष्ठा ही कही जाएगी कि हमारे पास विरोध करने तक का अपना तरीका नहीं है....हम विरोध करने के तरीके की भी नकल करते है...इराक में जैदी ने बुश पर जूता क्या फेंका.....हमारे यहाँ इसकी होड़ शुरू हो गई....यूँ हमारे देश में इसका पहला प्रयोग जरनैलसिंह ने किया था तो यह यहाँ उसका मौलिक प्रयोग है....फिर तो कारवां चल निकला....देश में हर दिन कहीं न कहीं से जूता चलने की खबर आती ही रहती है...ताजा जूता प्रधानमंत्री और पीएम इन वेटिंग लालकृष्ण आडवाणी के नाम चले....इस मामले में प्रधानमंत्री थोड़ा पिछड़ गए....आडवाणी जी को तो पूरा जोड़ा ही मिला, लेकिन बेचारे मनमोहनसिंह को एक से ही संतोष करना पड़ रहा है। इस मामले में नवीन जिंदल की तो उड़की ही लग गई......वह तो राजनीति की युवा ब्रिगेड का नितांत लो-प्रोफाइल नाम है फिर भी साहब किस्मत देखिए कि जूता प्रतियोगिता में उनका भी नाम आ गया....खैर साहब जो भी हो हमें तो दिवालिएपन के लिए ईनाम मिलना चाहिए.....ऐसा वैसा नहीं, पहला....और पता नहीं जेल में जैदी कुछ कर रहा है या नहीं, लेकिन वहाँ उसे समय का सदुपयोग करते हुए, जूता फेंकने की कला पर एक किताब लिख देनी चाहिए और कहीं नहीं तो हिंदुस्तान में तो उसकी खूब बिक्री होगी....और हाँ अमेरिका में कोई इसका पेटेंट कराने की सोचे इससे पहले ही जैदी को पहली फुर्सत में जूता फेंकू कला का पेटेंट करा लेना चाहिए, बुश पर जूता फेंकने के बाद नौकरी से तो उसे निश्चित ही निकाल दिया होगा....तो इस पेटेंट से उसे खूब आमदनी होगी ...कम से कम हमारे देश से तो निश्चित ही....अब तक तो उसे खासा नुकसान भी हो चुका है.....खैर अब भी जाग जाए तो सवेरा दूर नहीं है.....आमीन....

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