पिछले लगभग सवा साल से मंदी का भूत पुरी दुनिया की अर्थव्यस्था पर छाया हुआ है. वारेन बफे ने इसे १९३० की मंदी से भी बड़ा आर्थिक संकट बताया है. अकेले अमेरिका में जनवरी २००८ से सितम्बर तक हर माह औसतन ८४ हजार नौकरियां ख़त्म हुई. यह द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से वहां सबसे ज्यादा है. २० मार्च को अमेरिकी सरकार द्वारा जारी रिपोर्ट में बताया गया है कि देश में बेरोजगारी का प्रतिशत ८.१ हो गया है जो २५ सालों में सबसे ज्यादा है. फरवरी २००९ में ही ६ लाख ५१ हजार लोगों को नौकरियों से हटाया गया ओर वहां बेरोजगारों की कुल संख्या १२.५ मिलियन तक पहुँच गई है.
उधर अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के आशंका व्यक्त की है कि वैश्विक बेरोजगारी का आंकडा २००७ की तुलना में ३० मिलियन हो जाएगा और यदि ये सिलसिला नहीं रुका तो यह बढ़ कर ५० मिलियन तक भी जा सकता है. सिर्फ़ अकेले अमेरिका में नवम्बर २००८ से लेकर फरवरी तक के ४ महीनों में २.५ मिलियन लोगों के नौकरियां छिन गई और ये बेरोजगारी ओद्योगिक उत्पादन के ढह जाने से हुआ है. और यह ज्यादातर देशों में हर साल १० प्रतिशत की दर से गिर रहा है.
आम आदमी इस मंदी को नौकरियों के छिन जाने और वेतन कटौती के सन्दर्भ में ही समझ पा रहा है, लेकिन इसके परिणाम और भी भयावह हो सकते है. इस सिलसिले में लन्दन से प्रकाशित पत्रिका इकोनोमिस्ट ने चेतावनी दी थी कि मंदी की वजह से बहुत सारे विकासशील देशों में सामाजिक अशांति की स्थिति बन सकती है, कुछ इससे मिलती-जुलती आशंका अमेरिकी गुप्तचर विभाग के नए प्रमुख डेनिस ब्लयेर ने भी व्यक्त की है. उन्होंने कहा है कि वैश्विक मंदी की वजह से होने वाली राजनीतिक हलचल से देश की सुरक्षा को खतरा बढ़ रहा है, उनकी चिंता आतंकवाद की है. लेकिन मार्च के अंतिम सप्ताह में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के निदेशक डोमिनिक स्ट्रास कोहेन ने अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की बैठक से पहले जिनेवा में यह कह कर चौंका दिया कि-- दुनिया की आर्थिक स्थिति बहुत भयावह होती जा रही है और यदि इसे नहीं संभाला गया तो सामाजिक क्रांति और युद्ध भी भड़क सकता है. कोहेन ने कहा की इस संकट ने बहुत सारे देशों में नाटकीय रूप से बेरोजगारी बढाई है. यह सामाजिक शान्ति के साथ लोकतंत्र के लिए भी खतरा है और हो सकता है कि इसका अंत युद्ध में हो. इसी तरह जर्मनी के राष्ट्रपति और आई ऍम ऍफ़ के पूर्व प्रमुख होर्स्ट कोहलेर ने भी लगभग उसी समय स्ट्रास का समर्थन किया. उन्होंने कहा कि आने वाले कुछ महीने बहुत मुश्किलों भरे होंगें. कहा जा सकता है कि ये तो बस शुरुआत है, जैसे-जैसे इस समस्या को सुलझाने के लिए प्रयास किए जा रहें है, वैसे-वैसे समस्या आर्थिक से आगे बढ़कर राजनीतिक और सामाजिक रूप लेती जा रहीं है, अमेरिका जैसे देशों की संरक्षणवादी नीतियों से फ्रांस इतना नाराज था की उसने मीटिंग से पहले जी-२० को छोड़ने तक की धमकी तक दे डाली थी. उधर मीटिंग से पहले लन्दन, फ्रांस और जर्मनी में इसके खिलाफ प्रदर्शन हुए... तरलता और संरक्षणवाद के बीच के संघर्ष ने भी स्थितियां बिगाड़ कर रख दी है..... इस बीच हंगरी के प्रधानमंत्री फेरेनक जय्रुस्कानी ने चेतावनी दी है कि आर्थिक संकट पूर्वी यूरोप को योरोपियन यूनियन से अलग कर एक लोह आवरण के रचना कर सकता है। लंदन में हुई जी-20 की बैठक के परिणाम यूँ तो बहुत उत्साहजनक बताए जा रहे हैं, लेकिन यदि हम इतिहास नहीं भूले हो तो शक बना रहता है....हमें भूलना भी नहीं चाहिए कि आईएमएफ सहित सभी तरह की अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएँ हमेशा से अमेरिका की पिछलग्गू रही है और आज भी इनसे ज्यादा की उम्मीद नहीं की जा सकती है.....और फिर बराक ओबामा का बाय अमेरिकन....उन कंपनियों को सब्सिडी देने की घोषणा करना जिनमें अमेरिकीयों को रोजगार दिया जाएगा....फिर अमेरिका की प्रतिष्ठित कंपनी एआईजी को भी भूला नहीं जा सकता जिसने बैल आउट के लिए मिले पैसे में से सवा आठ सौ करोड़ रु. अपने अधिकारियों को बोनस के रूप में बाँट दिए....क्या ऐसे में विकासशील देशों के पास विश्वास करने के लिए क्या कुछ बचता है....जब थोड़े से संकट में अमेरिका बचाव की मुद्रा में आ खड़ा हुआ है तो क्या उसकी नीयत पर शक किया जाना आश्चर्य पैदा करता है
एआईजी की घटना ने एक बार फिर यह सिद्ध किया कि दरअसल सरकारों की सारी कवायदें पूँजीपतियों को बचाने की है, उन लोगों की दुर्दशा पर ध्यान नहीं है, जिनकी नौकरियाँ जा रही है....और यदि उनके हाथों को काम दिया जाए तो शायद अर्थव्यवस्थाओं को उबारने में मदद मिले......और युद्ध तथा सामाजिक अशांति का खतरा भी कम हो।
हालत वाकई बुरे हैं ......ऊपर से आर्थिक मुद्दे
ReplyDeleteसही कह रही है आप।
ReplyDeleteआभार
aapki ashanka sach na ho.aamin.
ReplyDelete